03-02-2013, 07:47 PM | #11 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
ज़िन्दगी भर मगर हंसी है मां दिल है ख़ुश्बू है रौशनी है मां अपने बच्चों की ज़िन्दगी है मां ख़ाक जन्नत है इसके क़दमों की सोच फिर कितनी क़ीमती है मां इसकी क़ीमत वही बताएगा दोस्तो ! जिसकी मर गई है मां रात आए तो ऐसा लगता है चांद से जैसे झांकती है मां सारे बच्चों से मां नहीं पलती सारे बच्चों को पालती है मां कौन अहसां तेरा उतारेगा एक दिन तेरा एक सदी है मां आओ ‘क़ासिम‘ मेरा क़लम चूमो इन दिनों मेरी शायरी है मां - Dr. Ayaz Ahmed 'kasim'
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
03-02-2013, 07:51 PM | #12 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर चलें चल कहीं और टहलते -टहलते अभी इश्क का ये तो पहला कदम है अभी जख्म खाने कई चलते-चलते है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते -संभलते ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ ढलते- ढलते जवाब आया न तो मुहब्बत क्या करते बुझा दिल का आखिर दिया जलते -जलते न घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते-पिघलते -Harkeerat 'heer'
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03-02-2013, 08:00 PM | #13 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
बुझ गई तेरे लिए जलती हुई छोड़ के लौ....(दामिनी को समर्पित)...
आज अँगारों के बिस्तर पे बसर करती है देख हर लड़की ही आज आँख को तर करती है खुद तो हूँ बुझ गई देकर के मैं हाथों में मशाल देखना क्या कि चिंगारी ये कहर करती है एक मज़लूम की चीखें न सुनी रब तूने मौत के बाद यह फरयाद क़बर करती है नहीं महफूज़ आबरू किसी लड़की की यहाँ अब कि डर-डर के यह दिल्ली भी बसर करती है देह भी लूट दरिन्दों ने ली,सांसें छीनी बददुआ जा तेरे जीवन को ज़हर करती है ए खुदा़! आँधियों ने दी उजाड़ ज़ीस्त मेरी यह हवाएं भी तुझे रो- रो खबर करती है बुझ गई तेरे लिए जलती हुई छोड़ के लौ दामिनी आज भी हर बस में सफ़र करती है कमीनो शर्म करो जाओ , कहीं डूब मरो आज देखे जो तुम्हें थू-थू नज़र करती है
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03-02-2013, 08:39 PM | #14 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
बेहतरीन............................
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04-02-2013, 05:53 PM | #15 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
खेत-बाग,नदी- ताल,जंगल-पहाड़ ;
वर्षा वनकन्या -सी कर रही विहार । जन्मी आषाढ़-घर, सावन की पाली ; भादोँ ने पहनाई चूनर हरियाली ; पवन मानसूनी है करे छेड़-छाड़ । गले मिले चिरक्वाँरी रेवा के पाट ; लगी गली-खोर कीच-काई की हाट ; घर-घर चौमास छाए पाहुन-त्योहार। श्रम के हक-भाग कोदो-कुटकी का भात ; कर्ज़ चढ़ा धान, मका-ज्वारी के माथ ; पानी ही पानी दृग-देहरी,दिल-द्वार । निजहंता मुक्तिपथ चुना विवशताओँ ने ; रक्तिम उन्नति रोकी नहीँ आकाओँ ने ; रुका न, रुकेगा यह सियासती बाज़ार । मीनारोँ पर बैठी बहरी ख़ुदाई ; लंगड़ी-गूँगी लगती सारी प्रभुताई ; बाज़ारोँ-बनियोँ की गिरवी सरकार ।
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04-02-2013, 06:06 PM | #16 | |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
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05-02-2013, 12:22 PM | #17 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
सभ्य दुनिया से हमें कुछ पूछना है,
क्या हमें उत्तर मिलेगा? था नहीं माँगा कभी हमने, किसी से राजपथ जब, क्यों हमारी छिन रही पगडंडियाँ हैं? हरहराते नदी-नालों और पर्वत, गहन वन के मध्य, अपने खेत में हम, मस्त "लेजा" गा रहे थे। तुम इस क्या गलत समझे, और "ले जाने" हमारी- लकड़ियाँ, महुआ, खनिज, अनमोल इमली। समझ बैठे तुम इसे आह्वान अपना, जो हमारे रूठ बैठे देवताओं को, मनाने के लिए हमने सुनाए थे उसे तुम, सिर्फ क्या इक गीत, एक धुन, एक लय समझे हुए थे? प्रार्थना थी वह नहीं क्या? पूछना वन की किसी भी एक तितली से, सुमन से या शशक से या कि बाँके चौकड़ी भरते- मृगों के झुंड से, क्या गीत हमने बेच कर, अपनी क्षुधा को मेटने को ही रचे थे? जब हमारे गीत फूटे थे, नहीं हम जानते थे, तुम हमारे गीत को, धुन को, लयों को जंगलों में कैद कर के, कुछ कँटीले तार से यूँ बाँध लोगे। हम सदा खुश थे हमारे- नील नभ से और धरती से, वनों से, हरहराते नदी-नालों, पर्वतों से, गहन वन से, थे हमें जो देवताओं ने दिए। पर थी नहीं माँगी कभी हमने तुम्हारी मोटरें, रेलें, सिनेमा, शहर, बिजली और टीवी। एक नभ, माटी, हवा, पशु-पक्षि के अतिरिक्त कुछ पत्ते, वनों के फूल-फल बस! और कुछ भी था नहीं चाहा, कभी कुछ। फिर हमारे "घोटुलों" पर, कैमरों की आँख फाड़े, क्यों स्वयं की गंदगी, गंदे विचारों और गंदी सभ्यता ओढ़े चले आते रहे हो? झाँकने घर में हमारे- अतिथि बन कर भी तुम्हारी दृष्टि, पशुधन या हमारी लाज पर पड़ती रही है। "पेज", "सल्फी" और "लाँदा" या कि महुए से बने मधु से हमारी स्नेह-भीगी अतिथि-सेवा-भावना का क्या तुम्हारी सभ्यता में- लूट ही प्रतिदान है? फिर बताओ, क्यों हमारी उच्च संस्कृति नष्ट करने पर तुले हो? हम तुम्हारे बिन "नवाखानी", "दियारी" और "गोंचा"-"दसराहा" में नाच लेंगे। देखना हमको नहीं दिल्ली, नहीं भोपाल, झूठे रंगमंचों की छटाएँ। सच बताना! तुम हमारी नृत्य-शैली, या हमारी नग्न देहों का प्रदर्शन चाहते हो? अब हमें कुछ-कुछ समझ आने लगा है। हम नहीं बिकते- तुम्हारे झूठ या आश्वासनों पर। याद रक्खो, शेर को तुमने उसी की माँद में जा कर झिंझोड़ा है, जगाया है। अगर धोखा किया उससे भले हम पूर्व पीढ़ी के निरक्षर, साध कर चुप्पी सदा बैठे रहे थे, पर नहीं अब, सिंह के शावक कभी चुप रह सकेंगे। धूप, सर्दी, आँधियों के बीच पलते- आज के पौधे बड़े मजबूत हैं। वे झेल जाएँगे, तपिश, आँधी, थपेड़े, पर नहीं स्पर्श करने दे सकेंगे- लाज अपनी, गीत अपने, और उनको गुनगुनाते राजपथ को चीर डालेंगे, बढ़ेंगे, देश के प्रहरी बनेंगे लाल बस्तर के- बनेंगे देश के प्रहरी। और सचमुच देखना तुम एक दिन जब इसी बस्तर की यही- खुशबू भरी माटी कभी इस देश का गौरव बनेगी। लेजा : बस्तर का एक हल्बी लोक-गीत, पेज : चावल के टूटे दानों (कनकी) को उबाल कर बनाया गया पेय, भोजन। सल्फी : इसी नाम के पेड़ से स्रवित होने वाला सफेद मादक पेय। लाँदा : चावल को सड़ा कर बनाया गया मादक पेय जो मादक होने के साथ-साथ भूख को भी मिटाता है। नवाखानी : नवान्न के स्वागत का पर्व। दियारी : अन्नकूट का पर्व। गोंचा : रथयात्रा का पर्व। दसराहा : बस्तर का विश्व प्रसिद्ध दशहरा।
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05-02-2013, 01:55 PM | #18 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
घर कहीं किसी का जल गया ।
और दिल, हमारा, पिघल गया ।। . बदल दें कुछ, हुई यह आरज़ू और मन, हमारा, मचल गया ।। . बैठे से कहाँ कभी बदला कुछ बदले हम, ज़माना बदल गया ।। . ज़िन्दगी भी वो क्या ज़िन्दगी, कि बस, काम भर चल गया ।। . रोशन हो ऐसे, बुझो तो कहें लोग सूरज था, जला औ’ ढल गया ।। . ज़िन्दगी को क्या ही उसने पिया, एक ही ठोकर जो संभल गया ।। . जी लो जी भर, बीती जाती है ये आया कल, ये कल गया ।। . थक जो गए, थोड़ा हँसे-बोले, और ये मन बावरा, बहल गया ।। . सोचो मत, पल जो है – पानी है पकड़ा जो मुट्ठी में, फिसल गया ।। . सोचा जबतक, करें क्या इसका, बस उतने में गुज़र ये पल गया ।। . सबसे भला तो ’अभि’ यायावर है, जिधर मिली राह, निकल गया ।।
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13-02-2013, 10:43 PM | #19 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
ग़ज़ल
(नईम अख्तर) इधर कई दिनों से कुछ झुकाव तेरे सर में है. है कौन ऐसा बा-असर के जिसके तू असर में है. इसी लिए तो हम बहुत जियादा बोलते नहीं, के बात चीत का मज़ा कलामे मुख़्तसर में है. ज़रा जो मैं निडर हुआ तो फिर ये भेद भी खुला, मुझे डराने वाला खुद भी दूसरों के डर में है. मेरा सफीना गर्क होता देख कर हैरां है जो, उसे पता नहीं कि उसकी नाव खुद भंवर में है. मुझे भी उसकी जुस्तजू उसे भी मेरी आरज़ू, मैं उसकी रहगुज़र में हूँ वो मेरी रहगुज़र में है. अमीरे शहर को कहीं बता न देना भूल से, कि मैं हूं खैरियत से और सुकून मेरे घर में है. |
24-02-2013, 07:52 PM | #20 |
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Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत
देखा जो एक बार
तुमने मुस्करा कर न जाने क्यों लगने लगा मुझे तुम्हीं हो मेरे जीवनपथ के साथी बस फिर क्या सारी दुनिया एक ओर और तुम्हारा इंतजार एक ओर इंतजार भी कैसा जो करता रहा मुझे परेशान इस इंतजार के चक्कर में मैं ऐसा डूबा कि एक पराये को अपनाने के फेर में अपनों को दूर करता रहा वक्त ने भी खूब बदला लिया मुझसे न ही तुम आए न ही काबिल बना मैं अपनों ने भी छोड दिया साथ मेरा जीवन पथ के सुनसान रास्तों पर भटक रहा हूं अकेला तन्हा तन्हाई में सोचता हूं कि काश न देखा होता तुमने मुस्करा कर न करता मैं तुम्हारा इंतजार तो शायद आज होती सारी दुनिया मेरी मुट़ठी में नजरों के फेर ने बदल दी राहे अब किसे दूं दोष मैं यह तो मेरी ही नजरों को फेर था जो एक मुस्कराहट को समझ बैठा प्यार. -- Harish Bhatt
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