11-04-2011, 09:01 AM | #41 |
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Re: प्रणय रस
यूँ जगा दो हृदय के स्वरों को प्रिये
प्राण की रागिनी फिर मुखर हो उठे गीत के नव स्वरों को नया साज दो प्रेम के छंद को एक अंदाज़ दो दो हमें भाव की व्यंजना तुम वही नेह की मुरलिका फिर सस्वर हो उठे जग उठे फिर प्रणय-दीप की वर्तिका मेल हो छंद रस-भाव संगीत का खोल दो प्रेरणा के नए द्वार तुम साधना का पुनः स्वर प्रखर हो उठे रस-भरी हो प्रणय कुञ्ज की गायिका मन, हृदय, प्राण निर्झर बनें भाव का राग-सर में विचरने लगे भावना उल्लासित प्रेम की हर लहर हो उठे यूँ जगा दो हृदय के स्वरों को प्रिये प्राण की रागिनी फिर मुखर हो उठे
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11-04-2011, 09:07 AM | #42 |
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Re: प्रणय रस
आज तुम्हारे अनुबंधों पर
बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ अब तक के सारे तलाश के निकले हैं अंजाम निराले आस भरे सपने जाने क्यों लगते हैं मावस से काले सूनापन कहता चुपके से बीते पल की मधुर कथाएँ आज तुम्हारे अनुबंधों पर बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ मन की बात अधर से कह लूँ ऐसा हाल कहाँ है मेरा सारी रात अगन पीने के बाद मिलेगा कहीं सवेरा लेकिन पल पल धूमिल पड़ती दीपक के लौ की आशाएँ आज तुम्हारे अनुबंधों पर बहुत मनन कर रहीं व्यथाएँ
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14-04-2011, 09:14 AM | #43 |
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Re: प्रणय रस
प्रिय तुम प्रेम प्रतीक हो
तुम प्रेम का आधार हो तुम ही तो हो पथ प्रेम का तुम ही प्रेम का द्वार हो सर्द सुलगती रातों में शीतल मृदु अहसास तुम मधुर स्वप्न हो नयनों के जटिल जीवन की आस तुम जलती बुझती चाहों में तुम एक अमर अभिलाषा हो घोर निराशा के रुक्ष्ण क्षणों में तृप्त प्रेम सी आशा हो लक्ष्य तुम ही हो जीवन का उस लक्ष्य तक पहुँचती हर राह तुम्ही तुम ही तनहाई की अकुलाहट हो प्रणय प्रेम की ठाह तुम्ही तुम ही इष्ट हो इस साधक के तुम ही साधना के बाधक हो विपुल साधना जिसकी मैं
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14-04-2011, 10:02 AM | #44 |
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Re: प्रणय रस
वाह सिकंदर भाई
यहाँ तो प्रेमरस की खूब बरसा रहे हो! धन्यवाद
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14-04-2011, 02:44 PM | #45 |
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Re: प्रणय रस
माँग भरती रही ....... रूप रोता रहा
विवशता प्रणय की किसने है जानी, माँग भरती रही, रूप रोता रहा । दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । धवल ज्योत्स्ना में बिखेरा सुआँचल, तारों की सारी निशा ने पहन कर, लुटा फिर दिया चाँद को वह सभी कुछ, रक्खा था उसने हृदय में सँजोकर, मिलन को उषा का सुस्वागत मिला, पर रात रोती रही, चाँद ढलता रहा । दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । बसन्ती सुरभि में पली इक कली ने, भ्रमर का मधुर स्वर निमंत्र्ति किया, कली मुस्कराई, लजाई, मगर फिर, प्रिय भ्रमर को अधर-रस समर्पित किया, बस क्षणिक गीत-गुंजन कली पा सकी, गीत बनते रहे, स्वर बदलता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । सपनों से लिपटी बहारें मचल कर, हर रूप यौवन को पाकर लजाया, प्रणय की मधुर कल्पना तब सजाकर, अदेखे पिया को नयन में बसाया, कि सपन में पिया का अभिसार पाने, आँख जगती रही, स्वप्न सजता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । नभ ने धरा के कपोलों को चूमा, रुपहली किरन का सुआँचल उठाकर, धडकनें धरा की बढी फिर स्वतः ही, गगन को समर्पण किया जब लजाकर, तभी आ जगाया उन्हें रवि किरन ने, अश्रु झरते रहे, प्यार पलता रहा। दो दिलों की जुबाँ कुछ भी न कह सकी, ओंठ हँसते रहे, दिल सिसकता रहा । विवशता प्रणय की किसी ने न जानी, माँग भरती रही, रूप रोता रहा।
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16-04-2011, 11:02 AM | #46 |
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Re: प्रणय रस
फागुन की माधुरी छुवन
मदन सिक्त कर देती मन मन्मथ की जादुई छड़ी जगा रही साधेँ बिसरी अंगना मे घुटन सी होने लगे अटरा पर प्यास जा चढ़े मितवा की छुवन मद भरी अंग अंग दहके चुन चुन महुआ पीकर चला पवन सरसोँ इठलाती बन ठन किँशुक की आँख हुई लाल देख ये कुलच्छनी चलन अमराई मे चिढ़ कर पिक पिया पिया टेरे पुन पुन खिलते चौपाल पर मुखर रसिया के गीत रसीले बार बार आकर टिकते अंचरा पर नयन हठीले कोयलिया मार टहोके बंसवट की बात न दे गुन पीहर से पाती आई गोरी का जियरा डोले कसर मसर अंगिया करती छुनुन छुनुन पायल बोले विरहा की धुन मे गाता जोगी सीवान मे निरगुन
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17-04-2011, 12:03 PM | #47 |
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Re: प्रणय रस
दो नयना मिल दो से चार हुए, ना सूझे कोई और जो तुम सुध आकर लो मेरी, मैं यह दुनिया दू छोड़ धरती मचले प्यास से, बादल का ना कोई निशान चंचल मन हुआ बावरा, तुम बिन देह हुई निष्प्राण कोयल कूहके बाग में, पपीहे ने मचाया शोर ऋतु पर भी यौवन चड़ा, पर ना नाचे मन का मोर लगे है चन्दन आग सा, पुरवाई चुभोए शूल मैं जोगन बन राह तकू, पियुजी गए तुम मुझको भूल चंद्रप्रभा से रात सजी, तारो ने जमाया डेरा सिसक विरह में रात कटी, असुवन में हुआ सवेरा तुम बिन सब सुख दुःख भये, ना पाए मन कहीं चैन प्राण जाए तो जाए पर, ना आए विरह की रैन.....ना आए विरह की रैन !!
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19-04-2011, 12:34 AM | #48 |
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Re: प्रणय रस
प्रथम प्यार का, प्रथम पत्र है लिखता, निज मृगनयनी को उमड़ रहे, जो भाव ह्रदय में अर्पित , प्रणय संगिनी को , इस आशा के साथ, कि समझें भाषा प्रेमालाप की ! प्रेयसि पहली बारलिख रहा,चिट्ठी तुमको प्यार की ! अक्षर बन कर जनम लिया है , मेरे मन के भावों ने ! दवे हुए जो बरसों से थे भड़क उठे अंगारों से शब्द नहीं लिखे हैं , इसमें भाषा ह्रदयोदगार की ! आशा है सम्मान करोगी, प्यार भरे अरमान की ! तुम्हें द्रष्टिभर जिस दिन देखा उन सतरंगी रंगों में भूल गया मैं रंग पुराने , भरे हुए थे स्मृति में ! उसी समय से पढनी सीखी , गीता अपने प्यार की ! प्रियतम पहली बार गा रहा, मधुर रागिनी प्यार की ! प्रथम मिलन के शब्द, स्वर्ण अक्षर से लिख मानसपट पर गूँज रहे हैं मन में अब , जब पास नहीं , तुम मेरे हो ! निज मन की बतलाऊँ कैसे ? बातें हैं अहसास की ! बहुत आ रही मुझे सुहासिन याद तुम्हारे प्यार की !
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19-04-2011, 02:38 AM | #49 |
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Re: प्रणय रस
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो । शीतल अनिल अनल दहकाती, सोम कौमुदी मन बहकाती, रति यामिनी बीती जाती, प्राण प्रणय आ सेज सजा दो । गीत प्रणय का अधर सजा दो । गीत प्रणय का अधर सजा दो । स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो । ताल नलिन छटा बिखराती, कुंतल लट बिखरी जाती, गुंजन मधुप विषाद बढाती, प्रिय वनिता आभास दिला दो । गीत प्रणय का अधर सजा दो । गीत प्रणय का अधर सजा दो । स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो । नंदन कानन कुसुम मधुर गंध, तारक संग शशि नभ मलंद, अनुराग मृदुल शिथिल अंग, रोम रोम मद पान करा दो । गीत प्रणय का अधर सजा दो । गीत प्रणय का अधर सजा दो । स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।
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19-04-2011, 11:49 PM | #50 |
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Re: प्रणय रस
संकोच-भार को सह न सका
पुलकित प्राणों का कोमल स्वर कह गये मौन असफलताओं को प्रिय आज काँपते हुए अधर । छिप सकी हृदय की आग कहीं ? छिप सका प्यार का पागलपन ? तुम व्यर्थ लाज की सीमा में हो बाँध रही प्यासा जीवन । तुम करूणा की जयमाल बनो, मैं बनूँ विजय का आलिंगन हम मदमातों की दुनिया में, बस एक प्रेम का हो बन्धन । आकुल नयनों में छलक पड़ा जिस उत्सुकता का चंचल जल कम्पन बन कर कह गई वही तन्मयता की बेसुध हलचल । तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं मधु की मादकता को छूकर वह देखो अरुण कपोलों पर अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर । तुम सुषमा की मुस्कान बनो अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल तुम मुझ में अपनी छवि देखो, मैं तुममें निज साधना अचल । पल-भर की इस मधु-बेला को युग में परिवर्तित तुम कर दो अपना अक्षय अनुराग सुमुखि, मेरे प्राणों में तुम भर दो । तुम एक अमर सन्देश बनो, मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ तुम कौतूहल-सी मुसका दो, जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ । तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ बहना है, बस बह चलो, अरे है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ? थोड़ा साहस, इतना कह दो तुम प्रेम-लोक की रानी हो जीवन के मौन रहस्यों की तुम सुलझी हुई कहानी हो । तुममें लय होने को उत्सुक अभिलाषा उर में ठहरी है बोलो ना, मेरे गायन की तुममें ही तो स्वर-लहरी है । होंठों पर हो मुस्कान तनिक नयनों में कुछ-कुछ पानी हो फिर धीरे से इतना कह दो तुम मेरी ही दीवानी हो ।
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