08-05-2014, 01:36 PM | #1 |
Diligent Member
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ग़ज़ल- मैँ तो जिन्दा हूँ रोज ग़म खा के
॰ ॰ ॰ ॰ ॰ यूँ हीँ ज्यादा तो कभी कम खा के मैँ तो जिन्दा हूँ रोज ग़म खा के मुझको उसपे यकीँ नहीँ होता जब भी कहता है वो कसम खा के जिन्दगी और भी सतायेगी बच गये हैँ ज़हर भी हम खा के वे तो मोटे हुए मुहब्बत मेँ मैँ तो पतला हुआ वहम खा के दूर "आकाश" हूँ उजालोँ से कैसे जिन्दा रहूँ ये तम खा के ग़ज़ल- आकाश महेशपुरी Aakash maheshpuri ॰ पता- वकील कुशवाहा उर्फ आकाश महेशपुरी ग्राम- महेशपुर पोस्ट- कुबेरस्थान जनपद- कुशीनगर उत्तर प्रदेश 09919080399 |
08-05-2014, 06:03 PM | #2 |
Special Member
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Re: ग़ज़ल- मैँ तो जिन्दा हूँ रोज ग़म खा के
मुझको उसपे यकीँ नहीँ होता
जब भी कहता है वो कसम खा के बेहतरीन पंक्तियाँ मैं इसको चुराने की इजाजत चाहूँगा....
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
08-05-2014, 09:42 PM | #3 | |
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Re: ग़ज़ल- मैँ तो जिन्दा हूँ रोज ग़म खा के
Quote:
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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10-05-2014, 09:24 AM | #4 |
Diligent Member
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Re: ग़ज़ल- मैँ तो जिन्दा हूँ रोज ग़म खा के
आदरणीय Ndhebar जी! व आदरणीय Rajnish manga जी! प्रशंसा भरे शब्दोँ के लिए हार्दिक आभार।
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06-02-2020, 04:39 PM | #5 |
Diligent Member
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Re: ग़ज़ल- मैँ तो जिन्दा हूँ रोज ग़म खा के
(आंशिक परिवर्तन के बाद)
यूँ हीं ज्यादा कभी मैं कम खा के जिन्दा रहता हूँ रोज ग़म खा के मुझको उसपे यकीं नहीं होता जब भी कहता है वो कसम खा के जिन्दगी और भी सतायेगी बच गये हैँ ज़हर भी हम खा के वे तो मोटे हुए मुहब्बत में मैं तो पतला हुआ वहम खा के दूर “आकाश” हूँ उजालों से कैसे जिन्दा रहूँ ये तम खा के – आकाश महेशपुरी |
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