01-07-2014, 11:04 PM | #1 |
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ग़ालिब की मक़बूलियत
सरवर ए. राज़ ‘सरवर’ ^^^ ^^ किसी शायर की मक़बूलियत (लोकप्रियता) का अंदाज़ा मुख्तलिफ़ तरीकों से किया जा सकता है. उसके अश’आर किस क़दर मुख्तलिफ़ मवाक़े (अलग अलग मौके) पर पढ़े जाते हैं? क्या उसका कलाम ज़र्ब-उल-इम्साल (लोकोक्तियों) के तौर पर भी इस्तेमाल होता है? लोगों ने उस की कितनी और किस किस तरह नक़ल करने की कोशिश की है? यह और इसी तरह के दूसरे पैमाने उसकी मकबूलियत के अंदाज़े में काम आ सकते हैं. ग़ालिब हमेशा मकबूल-ए-खास-ओ-आम रहे हैं. उन्होंने दुनिया-ए-उर्दू को सिर्फ अज़ीम शायरी ही नहीं दी है बल्कि हमें नए ज़ावियों (कोणों) से सोचना और महसूस करना भी सिखाया है. इसके अलावा उन्होंने हमारे तर्ज़-ए-निगारिश (अलंकरण शैली) को भी तरह तरह से मुतास्सिर (प्रभावित) किया है और उनके चिराग़ से उर्दू शेर-ओ-अदब में बहुत से नए चिराग़ जलाये गये हैं. इसका एक सबूत यह भी है कि हमारे बहुत से उदबा और शो’अरा ने अपने तसानीफ़ के नाम रखने के लिये दीवान-ए-ग़ालिब का सहारा लिया है. ज़ेल में एक मुख़्तसर फेहरिस्त ऐसी किताबों की दी जाती है जिन के नाम ग़ालिब के मरहून-ए-मिन्नत हैं. किताब और मुसन्निफ़ के नाम के साथ ही मिर्ज़ा ग़ालिब के वोह अश’आर भी दर्ज कर दिए गये हैं जिन से तसानीफ़ के नाम लिये गये हैं:
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01-07-2014, 11:08 PM | #2 |
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Re: ग़ालिब की मक़बूलियत
1. बाल-ए-जिबरील (अल्लामा इक़बाल)
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