28-06-2019, 12:26 PM | #1 |
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माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ
■■■■■■■■■■■■■■■■■ भैया के ही जैसे हर पल खिलखिलाना चाहती हूँ। माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। है यही बस लालसा देखूँ ज़माने को जरा मैं, कुदरती रंगीनियाँ दिलकश खजाने को जरा मैं। तुम भले ही मुख नहीं यह देखना हो चाहती पर, चाहती देखूँ तुम्हारे मुस्कुराने को जरा मैं। फर्ज बेटी का जो होता मैं निभाना चाहती हूँ- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। पैदा होते फेंक देना मर नहीं सकती सुनो मैं, हर तरफ ज़ालिम हैं लेकिन डर नहीं सकती सुनो मैं। क्यों किसी के डर से मेरा खून करने तू चली है? माफ तेरी जैसी माँ को कर नहीं सकती सुनो मैं। जो भी है अधिकार मेरा आज पाना चाहती हूँ- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। हर समय यूँ कोख में मरती रहेंगी बेटियाँ क्या? ज़ुल्म पुरुषों का सदा सहती रहेंगी बेटियाँ क्या? जानवर की भांति हमको रख लिया है कैद कर के, हरकदम कदमों में ही ढहती रहेंगी बेटियाँ क्या? जन्म दे दो नारियों को हक़ दिलाना चाहती हूँ- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। रचना- आकाश महेशपुरी ■■■■■■■■■■■■■■■■■■ वकील कुशवाहा 'आकाश महेशपुरी' ग्राम- महेशपुर पोस्ट- कुबेरनाथ जनपद- कुशीनगर पिन- 274304 मोबाइल- 9919080399 नोट- यह रचना मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक “सब रोटी का खेल” जो मेरे द्वारा शुरुआती दिनों में लिखी गयी रचनाओं का हूबहू संकलन है, से ली गयी है। यहाँ यह रचना मेरे द्वारा शिल्पगत त्रुटियों में यथासम्भव सुधार तथा भाव पक्ष में आंशिक बदलाव के साथ पुनः प्रस्तुत की जा रही है। Last edited by आकाश महेशपुरी; 29-06-2019 at 06:37 AM. |
26-10-2019, 05:57 AM | #2 |
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Re: माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ
आंशिक संपादन (एक जगह "का" के स्थान पर "के") किया है-
गीत- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ ■■■■■■■■■■■■■■■■■ भैया के ही जैसे हर पल खिलखिलाना चाहती हूँ। माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। है यही बस लालसा देखूँ ज़माने को जरा मैं, कुदरती रंगीनियाँ दिलकश खजाने को जरा मैं। तुम भले ही मुख नहीं यह देखना हो चाहती पर, चाहती देखूँ तुम्हारे मुस्कुराने को जरा मैं। फर्ज बेटी का जो होता मैं निभाना चाहती हूँ- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। पैदा होते फेंक देना मर नहीं सकती सुनो मैं, हर तरफ ज़ालिम हैं लेकिन डर नहीं सकती सुनो मैं। क्यों किसी के डर से मेरा खून करने तू चली है? माफ तेरी जैसी माँ को कर नहीं सकती सुनो मैं। जो भी है अधिकार मेरा आज पाना चाहती हूँ- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। हर समय यूँ कोख में मरती रहेंगी बेटियाँ क्या? ज़ुल्म पुरुषों के सदा सहती रहेंगी बेटियाँ क्या? जानवर की भांति हमको रख लिया है कैद कर के, हरकदम कदमों में ही ढहती रहेंगी बेटियाँ क्या? जन्म दे दो नारियों को हक़ दिलाना चाहती हूँ- माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ। रचना- आकाश महेशपुरी ■■■■■■■■■■■■■■■■■■ वकील कुशवाहा 'आकाश महेशपुरी' ग्राम- महेशपुर पोस्ट- कुबेरनाथ जनपद- कुशीनगर पिन- 274304 मोबाइल- 9919080399 नोट- यह रचना मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक “सब रोटी का खेल” जो मेरे द्वारा शुरुआती दिनों में लिखी गयी रचनाओं का हूबहू संकलन है, से ली गयी है। यहाँ यह रचना मेरे द्वारा शिल्पगत त्रुटियों में यथासम्भव सुधार तथा भाव पक्ष में आंशिक बदलाव के साथ पुनः प्रस्तुत की जा रही है। |
04-11-2019, 11:41 AM | #3 |
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Re: माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ
कन्या भ्रूणहत्या के विरुद्ध एक ज़बरदस्त आवाज़ उठाती हुयी महान रचना.
बहुत बहुत बधाई व धन्यवाद, आकाश जी.
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20-11-2019, 08:47 AM | #4 |
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Re: माँ नहीं मारो जहाँ में मैं भी आना चाहती हूँ
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