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Old 09-02-2013, 08:19 AM   #1
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वो नाचने और गाने वाली......

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हिंदी फिल्मों की दुनिया में नाचने और गाने के व्यवसाय से जुड़ी महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कुछ ऐसी महिलाएँ स्वयं फ़िल्मों से जुड़ीं और कुछ की कहानी पर फिल्में बनाई गईं। चंद्रमुखी और उमराव जान ऐसी सबसे लोकप्रिय महिलाएँ हैं, जिन पर आधारित फिल्में बार–बार बनीं और बार–बार लोकप्रिय हुईं। चंद्रमुखी के विषय में कहा जाता है कि वे एक काल्पनिक चरित्र है पर उमराव जान एक ऐतिहासिक चरित्र थीं।
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Old 09-02-2013, 08:20 AM   #3
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उमराव जान–



अमीरन उर्फ़ उमराव जान की ज़िंदगी से हम सभी वाकिफ़ हैं। उन्हें बचपन में अगवा कर के किसी कोठे पर बेच दिया गया था। लखनऊ की इस नर्तकी की रंगीन और संगीन ज़िंदगी में दर्द, तकलीफ़, इंतज़ार, उम्मीद और आज़ादी की चाहत है। उमराव जान अपने समय की दूसरी तवायफ़ों से अधिक मशहूर इसलिए हुई कि उसने अपनी आदत और अकीदत से नवाबों के दिल में खुद के लिए आरजू पैदा की। कोठे की कैद ज़िंदगी में उसके ख्.वाबों के पंख फड़फड़ाते रहे और उसने निजी फ़ैसलों को अहमियत दी। शान–ओ–शौकत से ज़्यादा एहसास और प्यार के लिए आतुर उमराव जान दर–ब–दर हुई, लेकिन उसने कभी अपनी आह से किसी को आहत नहीं किया।

उमराव जान की ज़िंदगी को मिर्ज़ा मोहम्मद हादी रूसवा ने मशहूर कर दिया। उन्होंने अमीरन की क़रीबियत से मिली जानकारी पर अफ़साना गढ़ा और उमरा–ओ–जान–ए–अदा नाम से एक नॉवेल साया किया, जो लखनऊ के महादेव प्रसाद पब्लिशर्स ने छापा था। कई सालों के बाद खुशवंत सिंह ने उर्दू के इस उपन्यास का अंगे्रज़ी अनुवाद किया। उमराव जान का घटनापूर्ण जीवन फ़िल्मों के लिए उपयुक्त था। लखनऊ के मुज़फर अली ने 'उमराव जान' नाम से एक यादगार फ़िल्म बनाई और हिंदी फ़िल्म उद्योग की साक्षात रहस्य रेखा को हमेशा के लिए अमर कर दिया। अब जे .पी .दत्ता उसी उमराव जान की भूमिका में आज की अनिन्द्य सुंदरी ऐश्वर्या राय को लेकर आ रहे हैं। दोनों फ़िल्मों की तुलना अवश्य होगी। रेखा और ऐश्वर्या राय की खूबियों और ख़ामियों पर बहस होगी।

नर्तकियों की जिस परंपरा में उमराव जान आती हैं, उस पर ग़ौर करने की आवश्यकता है। उन्हें तवायफ़, गानेवाली और कोठेवाली भी कहा जाता था। गानेवाली इसलिए कि वे अपने गायन से सभी का दिल बहलाती थीं। उन्हें कोठेवाली इसलिए कहा जाता था कि दो मंज़िले मकान में वे कोठे पर रहती थीं। उनकी महफ़िलें भी कोठे पर सजती थीं। निचली मंज़िल में उनके साजिंदे और भाई बंद रहते थे। इनकी आवाज़ में एक साथ मिठास और उदासी रहती थी। सोने की तरह चमकती उनकी आवाज़ की खनक नवाबों की नींद उड़ा देती थी। कहते हैं इज़्ज़तदार परिवारों के सदस्य भी अदा और तहज़ीब सीखने उनके कोठे पर जाने में शर्मिंदगी नहीं महसूस करते थे। जुबान की तेज़ और तमाम विषयों की जानकार तवायफ़ों को कभी बादशाह, नवाब और ज़मींदार बड़ी इज़्ज़त से देखते और रखते थे। उन्नीसवीं सदी के अंत तक तवायफ़ों की इज़्ज़त कम होने लगी और उन्हें वेश्या समझा जाने लगा। सभ्य समाज से उन्हें बहिष्कृत करने की कोशिशें आरंभ हो गई थीं। यही कारण है कि बीसवीं सदी की मशहूर तवायफ़ों ने अपनी बेटियों को दूसरे व्यवसायों के लिए तैयार किया। उत्तर भारतीय समाज में तवायफ़ों की परंपरा धीरे–धीरे ख़त्म हो गई और उसकी जगह चकले, कोठे और वेश्यालयों ने ले ली। शहरों में उनके मोहल्ले सुनिश्चित कर दिए गए और उन पर पाबंदियाँ लगा दी गईं। अनेक प्रसिद्ध गायिकाओं व नर्तकियों ने ऐसे समय में फिल्मों की राह ली। इनमें से कुछ अत्यधिक प्रसिद्ध हुईं।
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Old 09-02-2013, 08:20 AM   #4
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बेगम समरु –



दिल्ली की समरु मुगल शासक शाह आलम की निगाह में आने से पहले कोठे की गायिका थीं। बेगम समरु के रुतबे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद बादशाह शाह आलम ने उन्हें अपना संरक्षक माना। राजनय और राजनीति की जानकारी रखने वाली बेगम समरु ने दिल्ली में ऐसी हैसियत हासिल कर ली थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजी अधिकारी और रणनीतिज्ञ अपने मंसूबों के लिए उन्हें ज़रूरी समझने लगे थे। बेगम समरु की परवरिश इतनी पक्की थी कि वे बादशाह, विदेशी सैनिकों, ज़मींदारों और शाही घराने के लोगों से मेलजोल में कोई दिक्कत नहीं महसूस करती थी।
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जानम खान –

बेगम समरु की समकालीन थी जानम खान। कहते हैं में कानपुर के हसन शाह ने जानम खान की ज़िंदगी पर 'नश्तर' नाम का उपन्यास लिखा था। कुर्तुल एन हैदर के शब्दों में तब की फ़ारसी मिश्रित हिंदी में लिखा यह भारत का पहला उपन्यास माना जाता है। हसन शाह ने जानम खान से शादी की थी, पर दुनिया को इसकी ख़बर नहीं होने दी। बाद में स्थितियाँ ऐसी बनीं कि दोनों जुदा हो गए। जानम खान दिल टूटने से जान गवाँ बैठीं। जानम खान की एक ही ख्वाहिश थी कि वह शादी कर किसी भले घर की बहू बन जाएँ। माना जाता है कि कमाल अमरोही की 'पाकीज़ा' जानम खान की ज़िंदगी पर आधारित थी। जानम ख़ान डेरेदार तवायफ़ थी और मुख्य रूप से कानपुर, बनारस और लखनऊ इलाके में ही उन्होंने डेरा डाला।
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मलका जान –



मलका जान के बारे में विस्तृत जानकारियाँ नहीं मिलतीं। विदेशी मूल की मलका जान ने योरोपीय पुरुष से शादी की थी। गाने और नाचने का प्रशिक्षण ले चुकी मलका जान ने बेटी की पैदाइश के बाद पति का घर छोड़ दिया। वह बनारस आ गई और वहीं रहीं। उसने अपनी बेटी गौहर जान को भी गायन में प्रशिक्षित किया।
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गौहर जान –



गौहर जान पहली गानेवाली थी, जिसके गाने रिकॉर्ड किए गए थे। उसके पहले गानेवालियाँ सिर्फ़ कोठों पर ही महफ़िलें सजाती थीं। बीसवीं सदी के आरंभ में ग्रामोफ़ोन कंपनियाँ भारत आईं तो उन्हें गानेवालियों की ज़रूरत पड़ी। कहते हैं कि में गौहर जान ने सात भाषाओं में सैकड़ों गाने रिकार्ड करवाए। गौहर जान की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें विज्ञापन मिलने लगे थे। गौहर जान ने खुद को नयी तकनीक के हिसाब से ढाला। तीन मिनट में ग़ज़ल या ख़याल गाने की परंपरा डाली। तब उन्हें अपनी गायकी के बाद अपना नाम भी रिकॉर्ड करना पड़ता था। गौहर जान की अपनी बग्घी थी और वह उसी की सवारी करती थी। वे जब कोलकाता गई तो उनकी बग्घी भी ट्रेन से कोलकाता भेजी गई। वे अकेली ऐसी गायिका थीं, जिसने रवींद्र संगीत को अपनी धुनों से संजोया और गाया। हाँ, इसकी पूर्व अनुमति गुरु रवींद्र नाथ ठाकुर से उन्होंने ले ली थी।
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मलिका पुखराज–



गौरह जान के अंतिम दिनों में मलिका पुखराज का उदय हुआ। जम्मू कश्मीर के अखनूर में पैदा हुई मलिका पुखराज की माँ ने उन्हें बचपन से ही संगीत की शिक्षा दिलवाई। बाद में वह अपनी मां के साथ दिल्ली आ गईं। दिल्ली में उन्होंने कथक का प्रशिक्षण लिया। जब कश्मीर के राजा हरि सिंह राजगद्दी पर बैठे तो मलिका उनकी रियासत की मशहूर गानेवाली होने के कारण उनके दरबार में शामिल की गईं। वे हरि सिंह के इतनी करीबी हो गई थीं कि उनके किस्से महल की चहारदीवारी से बाहर निकलने लगे थे। अपनी बदनामियों से बचने के लिए मलिका पुखराज लाहौर चली गईं। लाहौर में वे अपने दादा की बग्घी और चार घोड़े भी ले गई थीं। लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने कार ख़रीद ली। कार आने से वह निमंत्रित की गई जगहों पर देर तक रुक सकती थीं।
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बेगम अख्तर–



मलिका पुखराज के ज़माने में ही बेगम अख्तर मशहूर हो चुकी थीं। मूलतः फैज़ाबाद की निवासी बेगम अख्तर की आवाज़ साफ़ थी और उनका उर्दू उच्चारण शुद्ध था। बेगम अख्तर को इसका फ़ायदा हुआ। वे भी गानेवाली की बेटी थीं, लेकिन संगीत की उच्च शिक्षा के लिए वे कोलकाता चली गई थीं। वहाँ उन्होंने निजी और सार्वजनिक समारोहों में हिस्सा लेना शुरू किया। वे गायकी के साथ ही नाटकों, रिकॉर्डिंग और फ़िल्मों में भी सक्रिय थीं। बाद में वे केवल संगीत समारोहों में ही गाती थीं।
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जद्दन बाई –



संजय दत्त की नानी और नरगिस की मां उद्दन बाई ने इस बात को समझ गयीं थीं कि कोठे वाली गायिकाओं के व्यवसाय का भविष्य अच्छा नहीं है। इसी वजह से उन्होंने नरगिस को बाकी कलाओं का प्रशिक्षण दिया, लेकिन गायकी से दूर रखा। उन्होंने पहले कोलकाता और फिर मुंबई में फ़िल्मों का रुख किया। उनकी बेटी नरगिस कामयाब अदाकारा बनीं और इस तरह गानेवालियों की परंपरा एक नयी दिशा में मुड़ गई।
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