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![]() निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥ भावार्थ:-समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर॥1॥जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥ गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥ भावार्थ:-उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्*जी से भी किया। हनुमान्*जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया॥2॥सोइ छल हनूमान्* कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥ ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥ भावार्थ:-पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्*जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे॥3॥तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥3॥ नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥ भावार्थ:-अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्*जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े॥4॥सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥4॥ उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥ भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें वानर हनुमान्* की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥ * अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥ भावार्थ:-वह अत्यंत ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥
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![]() छंद : भावार्थ:-विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियाँ हैं, सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥ कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना। चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥ गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै। बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥ बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। भावार्थ:-वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान्* मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥ कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥ करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। भावार्थ:-भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी सी कही है कि ये निश्चय ही श्री रामचंद्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेंगे॥3॥ कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥ एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥ दोहा- भावार्थ:-नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्*जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥
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![]() मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥ भावार्थ:-हनुमान्*जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्* श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले (लंका के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥ जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥ भावार्थ:-हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान्*जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ी॥2॥मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥ पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥ भावार्थ:-वह लंकिनी फिर अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। (वह बोली-) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि-॥3॥जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥3॥ बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥ भावार्थ:-जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥
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![]() दोहा : भावार्थ:-हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥4॥
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥4॥
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![]() प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥ भावार्थ:-अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है॥1॥गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥ गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥ भावार्थ:-और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्*जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान्* का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥ * मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥ भावार्थ:-उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥ * सयन किएँ देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥ भावार्थ:-हनुमान्*जी ने उस (रावण) को शयन किए देखा, परंतु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दीं। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहाँ (उसमें) भगवान्* का एक अलग मंदिर बना हुआ था॥4॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥
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![]() दोहा : भावार्थ:-वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान्*जी हर्षित हुए॥5॥
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥
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![]() लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥ भावार्थ:-लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्*जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥ राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥ भावार्थ:-उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्*जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्*जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥ बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥ भावार्थ:-ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान्*जी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहाँ आए। प्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए॥3॥ करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥ की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥ भावार्थ:-क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥4॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥4॥
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![]() दोहा : भावार्थ:-तब हनुमान्*जी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनंद में) मग्न हो गए॥6॥
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम। सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥6॥
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![]() सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥ भावार्थ:-(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥ तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥ भावार्थ:-मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान्*! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥2॥अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥2॥ जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥ भावार्थ:-जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं। (हनुमान्*जी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥3॥सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥ कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥ भावार्थ:-भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? (जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥4॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥
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![]() दोहा : भावार्थ:-हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान्* के गुणों का स्मरण करके हनुमान्*जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥7॥
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥
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